बुधवार, 2 मई 2007

सागर तट जाकर


सागर तट जाकर
बैठता हूँ कभी मैं
चिंताएँ अपनी
भूलता हूँ सभी मैं

निर्जन टापू पर
सुनकर लहरों को
हरदम होता हूँ
आनंदित और भी मैं

रुककर सुनता हूँ
प्रकृती का इशारा
आगे बढने का
बढता है बल मेरा

छोडता हूँ वही पर
कष्ट सारे जहाँ के
लेकर आता हूँ
महका सा एक चेहरा

तुषार जोशी, नागपुर

(छायाचित्र सौजन्य कृपाली)

3 टिप्‍पणियां:

  1. तुषार जी,
    आपकी कवितायें तो गंभीर होती ही हैं किंतु आपके फोटोग्राफ्स का कोई जवाब नहीं। आपको कोटिश: बधाई..

    *** राजीव रंजन प्रसाद

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  2. काश ऐसा सागर तट आसानि से सभि को मिले जहा
    हम अपने सारे गम छोड कर आ सके.
    खरच खुप छान आहे........................

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  3. सुन्दर! बहुत सुन्दर, एकांत का भी जीवन में बहुत महत्व है, सचमुच!

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